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Santoshi Mata Vrat Katha: जानिए माँ संतोषी की व्रत कथा, व्रत विधि, और महत्व

Santoshi Mata ki Vrat Katha: हमारे सनातन धर्म में माँ संतोषी को देवी के रूप में पूजा जाता है। भगवान गणेश और उनकी पत्नी रिद्धी और सिद्धि के दो पुत्र हैं, शुभ और लाभ, तथा पुत्री संतोषी देवी हैं।

मान्यताओं के आधार पर बताया गया है, कि शुभ-लाभ ने भगवान गणेश से इच्छा जताई कि उनकी एक बहन हो। तब भगवान गणेश ने अपनी विशेष शक्तियों से एक ज्योत उत्पन्न की और उनकी दोनों पत्नियों रिद्धी और सिद्धि की आत्मशक्ति के साथ शामिल होकर पुत्री को जन्म दिया, जिन्हें संतोषी नाम दिया गया।

संतोषी माता का जन्म शुक्रवार को हुआ था, इसलिए उनकी पूजा-अर्चना इस दिन करने से माता संतोषी धन-संपदा और सुख-शान्ति प्रदान करती हैं। इस लेख में जानिए संतोषी माता की व्रत कथा, व्रत के लाभ, और व्रत विधि।

माता संतोषी के व्रत के लाभ (Santoshi Mata Vrat Ke Labh)

माँ संतोषी की व्रत कथा (Santoshi Mata Vrat Katha)

एक बार की बात है, एक गाँव में एक बुढ़ी महिला रहती थी। उनके सात पुत्र थे। इनमें से छः बेटे अपना काम-धंधा करते थे, लेकिन एक बेटा निकम्मा था।

माँ अपने सभी छः पुत्रों का जूठा भोजन अपने इस सातवें पुत्र को देती थी।

सातवाँ पुत्र एक दिन अपनी पत्नी से बोला, “देखो, मेरी माँ मुझसे कितना प्रेम करती है।”

तो पत्नी बोली, “हाँ, तभी तो तुम्हारे सभी भाइयों का जुठा भोजन तुम्हें खिलाती है।”

वह बोला- “नहीं, मैं नहीं मान सकता।”

पत्नी ने हँसकर कहा, “अपनी आँखों से देख लोगे तब तो मानोगे न?”

समय बीतता गया और एक त्यौहार आया। उस दिन घर में सात प्रकार के पकवान और चूरमे के लड्डू बने। उस दिन उसने अपनी पत्नी की बात को जांचने के लिए सिर दर्द का बहाना किया, और रसोई में पतला सा कपड़ा ओढ़कर लेट गया और कपड़े में से सब देखता रहा।

उसके छः भाई भोजन करने आये तब उसने देखा कि माँ ने उन सभी के लिए सुंदर से आसान बिछाए, उन्हें सात प्रकार के भोजन परोसे, और बार-बार आग्रह करके उन्हें खूब प्रेम से खाना खिलाया।

इन सभी पुत्रों का भोजन होने के बाद माँ ने सभी की जुठी थालियों में से लड्डूओं के टुकड़े उठाए और एक लड्डू बनाया। फिर माँ ने आवाज लगाई, “उठ बेटा उठ! तेरे भाइयों ने भोजन कर लिया, तू भी अब भोजन कर ले।”

उसने कहा, “माँ मुझे भोजन नहीं करना। मैं परदेस जा रहा हूँ।” तब माता ने कहा, “कल जाना हो, तो आज ही जा।” तब वह घर से निकल गया।

सच जानकर बेटे ने त्यागा घर

उसे अपनी पत्नी की याद आई। वह गौशाला में गोबर के कंडे थाप रही थी। वहाँ जाकर अपनी पत्नी से बोला, “मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है, तो तुम मेरी ये अंगूठी अपने पास रख लो, और मुझे भी अपनी कोई निशानी दे दो।”

पत्नी बोली, “मेरे पास क्या है? यह गोबर से भरा हुआ हाथ है।” यह कहकर पत्नी ने अपने पति की पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी।

वह वहाँ से निकल कर दूर देश में पहुँच गया। वहाँ उसे एक दुकान पर साहूकार दिखा। उसने कहा, “सेठजी, क्या आप मुझे अपने यहाँ काम पर रख सकते हैं?” तो सेठजी ने कहा, “काम देखकर वेतन मिलेगा।” तब उसने अपनी स्वीकृति दे दी और दिन-रात वहाँ काम करने लगा।

कुछ दिनों में दुकान के सारे हिसाब, लेन-देन, ग्राहकों को माल देना, सारा काम करने लगा। साहूकार के वहाँ के सभी नौकर उससे ईर्ष्या करने लगे। लेकिन वह अपनी लगन, परिश्रम, और ईमानदारी से काम करता रहा। 

सेठजी ने भी उसके काम को देखते हुए तीन महीने में ही उसे मुनाफे में साझेदार बना लिया। बारह वर्षों तक काम करते-करते वह उस नगर का नामी सेठ बन गया। सेठ भी अपना सारा कारोबार उसपर छोड़कर बाहर चला गया।

पति के जाने से सहना पड़ा दुर्व्यवहार

इधर घर पर उसकी पत्नी बहुत दुःखी रहने लगी।

उसके सास-ससुर उसे परेशान करने लगे। गृहस्थी का सारा काम करवाने के साथ, जंगल से लकड़ी लाना और भी सभी कार्य उससे करवाने लगे। घर के रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती है, उसकी रोटी खिलाने लगे और फूटे नारियल की नरेली में पानी देने लगे।

इतना सहन करके वह बहुत दुःखी रहने लगी। एक दिन जंगल में जाते वक्त उसे बहुत-सी स्त्रियाँ पूजा करते दिखाई दीं। तब उसने उनसे पूछा, “बहनों, यह तुम सब क्या कर रही हो? किस देवता की पूजा कर रही हो? और इसके करने से क्या फल मिलता है?”

तब उनमें से एक महिला बोली,  “सुनो-यह माता संतोषी का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और माँ लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। जब भी मन में बहुत-सी चिंताएं हो, तो मन को इस व्रत करने से प्रसन्नता और शांति मिलती है। सन्तानहीनों को संतान प्राप्त होती है तथा कुँवारी कन्याओं को अच्छे वर की प्राप्ति होती है। अगर कोई कोर्ट-कचहरी चल रही होतो उसमें विजयी दिलाने वाला यह व्रत है। किसी भी प्रकार की मन में कोई कामना हो,तो सब संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है।”

वह पूछने लगी, “यह व्रत कैसे किया जाता है?” तब वह स्त्री कहने लगी, “अपनी श्रद्धा और निःस्वार्थ प्रेम से जितनी इच्छाशक्ति हो उतना प्रसाद लें।

सवा पांच पैसे से सवा पांच आने तथा इससे भी ज्यादा यथाशक्ति गुड़ और चना लें। हर शुक्रवार को निराहार रहकर माता संतोषी की कथा पढ़े और सभी को सुनाएं। कथा पढ़ने से पहले घी का एक दीपक जलाएं, और कथा सुनने वाला कोई न हो, तो जल के पात्र को रखकर कथा पूरी करें। जिस कार्य के लिए व्रत किया हो जब तक वह पूरा न हो, तब तक इसी नियम का पालन करें और कार्य सिद्ध होने पर व्रत का उद्यापन करें।”

बहु ने पूछा, “उद्यापन कैसे करूँ?” महिला बोली, “कार्यसिद्ध होने पर उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी अनुसार खीर तथा चने का साग बनाना चाहिए। और आठ बच्चों को भोजन करवाना चाहिए। जहां तक संभव हो अपने भाई-बन्धु और कुटुंब के लड़कों को बुलाना चाहिए। अगर ना मिले तो पड़ोसियों के लड़कों को बुलाए। इन्हें भोजन करवाकर यथाशक्ति दक्षिणा दें और नियमानुसार माता के व्रत का पालन करें।”

बहू ने पूछा, “व्रत में वर्जित चीज़ें कौनसी हैं?” उसने कहा, “बहन, एक बात का विशेष ध्यान रखना कि उस दिन घर में कोई भी खटाई नहीं खाए।” यह सारी बातें सुनकर वह अपने घर को लौटने लगी।

माँ संतोषी ने दिया आशीर्वाद

रास्ते में जाते समय उसे माँ संतोषी का मंदिर दिखाई दिया। वह माता के चरणों में लौटने लगी और विनती करने लगी, “माँ! मैं दीन-दुःखी हूँ। व्रत के नियम नहीं जानती। हे माता! मेरा दुःख दूर करो, अब मैं तुम्हारी शरण में आना चाहती हूंँ।” अब उसने सारी लकड़ियों को बेचकर उन पैसों से गुड़ और चना खरीदा तथा व्रत की तैयारी करने लगी।

उसने शुक्रवार का पहला व्रत किया और दूसरे शुक्रवार को ही उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को पति द्वारा भेजा पैसा भी उसे प्राप्त हो गया। इतने दिनों बाद इतना पैसा आया, तो उसकी जेठानी जलने लगी। सभी ताने मारने लगे कि, “अब तो तुम्हारी खातिर बढ़ने लगेगी।” तब उसने सरलता से कहा, “रूपया आएगा तो हम सबके लिए अच्छा है।”

वह मंदिर में माता के सामने रोने लगी कि, “मुझे पैसों से क्या काम। मुझे तो अपना सुहाग चाहिए।”

तब माता ने कहा, “तेरा सुहाग जल्द ही तेरे पास आएगा।” ये सुनकर वह बावली-सी हो गई। तब माता ने सोचा कि इसका पति तो इसको याद भी नहीं करता तो यहाँ कैसे लौटेगा ?

तब माता ने स्वप्न में उसके पति को आकर कहा, “पुत्र! तेरी घरवाली बहुत कष्ट उठा रही है। तुम अपने घर लौट जाओ।” तब उसके पति ने कहा, “मेरे पास लेन-देन का हिसाब है, मुझे जाने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा। आप ही कोई राह दिखाएं, कि मैं वहाँ कैसे जाऊं?” माता ने कहा, “सवेरे नहा-धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जलाकर दंडवत करना और दुकान पर जा कर बैठ जाना। देखते ही देखते तेरा सारा लेन-देन चुक जाएगा और जो माल है वो भी बिक जाएगा।”

उसने अपने साथियों को स्वप्न की बात बताई तो सब हँसने लगे। तब उनमें से एक बुजुर्ग बोला कि, “माता ने जैसा बताया है वैसा ही तुम करो।” उसने स्वप्न की बात मानकर वैसा ही किया तो शाम तक धन का ढेर लग गया। वह मन में संतोषी माता का नाम लेकर घर जाने के लिए गहने, कपड़े, व सामान खरीदने लगा। और फिर अपने घर को रवाना हुआ।

बेटे की घर वापसी

इधर उसकी पत्नी जंगल से लौटते वक्त माता संतोषी के मंदिर में रुकी। वहाँ उसे धूल उड़ती दिखाई दी, तो उसने माता से पूछा, “हे माता ! यह धूल केसी उड़ रही है?” माँ ने कहा, “हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना। एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर में, और तीसरा अपने सिर पर रख, तेरे पति को लकड़ी का गट्ठर देखकर मोह पैदा होगा। यह वहाँ रुकेगा, माँ से मिलने जाएगा। तो लकड़ी का बोझ उठाकर जाना और बीच चौक में गट्ठर डालकर तीन आवाजें ज़ोर से लगाना, लो सासुजी! लकड़ियों की गठरी लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो! कौन मेहमान आया है आज?”

माता की बात मानकर उसने ऐसा ही किया। उसका पति भी घर पहुँच गया। उसने सासुजी को आवाज़ लगाकर सारी बातें की, तब सासु बोली, “तू मेरे द्वारा अपने कष्टों को भूल जा। तेरा स्वामी आया है, अब कपड़े, गहने पहन और मीठा भात खा ले।” पत्नी की आवाज़ सुन पति बाहर आया, और हाथ में अंगुठी देख व्याकुल हो गया।

उसने माँ से पूछा, “यह कौन है?” माँ ने कहा, “बेटा तेरी पत्नी है। जबसे तू गया है ये जानवरों जैसे पूरे गांव में घूमती रहती है। कामकाज कुछ नहीं करती, और चार वक्त भोजन खा जाती है। ऐसी बातें सुनकर उसने कहा, “माँ मैं तुम्हें भी जानता हूँ और इसे भी, इसलिए मुझे दूसरे घर की चाबी दो, मैं उसमें रहूंगा।”

उसने दूसरे घर में अपना सामान जमाया और महलों जैसे ठाट-बाट जैसा सुख अपनी पत्नी को दिया।

अगले शुक्रवार उसने अपने पति से कहा, “मुझे माता संतोषी का उद्यापन करना है।” पति ने कहा, “बहुत अच्छा, खुशी से कर लो।” वह उद्यापन की तैयारी करने लगी। जेठ के लड़कों को भोजन के लिए बुलाया। उसकी जेठानी ने बच्चों को सीखा दिया कि भोजन के समय खटाई माँगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा ना हो पाए। लड़के भोजन करने आये तो कहने लगे हमें खटाई चाहिए। बहु ने उन्हें कुछ पैसे दे दिए। बच्चे बाज़ार में जाकर उन पैसों से इमली खरीद कर खाने लगे।

तब माता संतोषी रुष्ट हो गई। माता के प्रकोप से राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गए। इतना सब देख पत्नी माता के मंदिर में जाकर रोने लगी। माता ने कहा, “तूने मेरा व्रत भंग किया है। तुझसे अपराध हुआ है।” तब माफी माँगते हुए पत्नी बोली, “माँ मुझसे अब भूल नहीं होगी। आप मुझे रास्ता दिखाओ कि पति कैसे वापस आएगा?” माँ ने कहा, ”पुत्री! जा तेरा पति तुझे रास्ते मे आता मिलेगा।” वह मंदिर से थोड़ा आगे निकली की उसका पति दिखाई दिया।

अगले शुक्रवार फिर से उसने संतोषी माता के व्रत का उद्यापन किया। इस बार भी जेठानी ने अपने बच्चों को खटाई माँगने के लिए सिखाया। बच्चों ने खीर-पुड़ी खाने से मना किया और कहा हमें खटाई चाहिए। तब इसने कहा कि खटाई नहीं दूंगी। तो सभी लड़के उठकर खड़े हो गए और जाने लगे। तब इसने ब्राह्मणों के लड़कों को बुलाकर भोजन करवाया और दक्षिणा में फल दिया। इससे माता संतोषी प्रसन्न हो गईं और नौ महीने बाद उसे एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र को रोज़ वह मंदिर में ले जाने लगी।

माँ संतोषी की कृपा

तब माता संतोषी ने सोचा कि, क्यों ना आज मैं ही इसके घर चलूं! यह विचार कर माता ने भयानक रुप बनाया। गुड़ और चने से सना मुख, बड़े-मोटे होंठ, उसपर मक्खियां भिनभिना रही थी। जैसे ही संतोषी माता ने घर में प्रवेश किया, वैसे ही सासु ज़ोर से चीखने लगी कि इसे भगाओ। बहु ने जैसे ही माता को देखा दूध पीते बच्चे को गोद से उतार दिया। सास बोली, “इस औरत के कारण तूने बच्चे को उतार दिया?” तब उसने बताया, “सासुजी ये संतोषी माता हैं, जिनका व्रत में करती हूँ।”

तब सबने माता के चरण पकड़े और माफी मांगी कि “हमारे अपराधों को माफ कीजिये। हम सब मुर्ख और अज्ञानी हैं।” माता से बार-बार पश्चयाताप करने पर माँ सन्तोषी प्रसन्न हुई। इसके बाद सासु ने कहा, “हे सन्तोषी माँ! आपने जैसा फल बहु को दिया है, वैसा ही सबको देना।” तब माता ने कहा, “जो यह कथा सुनेगा या पढ़ेगा उसके सभी मनोरथ निश्चित ही पूरे होंगे।”

माँ संतोषी व्रत विधि (Santoshi Mata Vrat Vidhi)

माँ संतोषी व्रत विधि
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